संभवतः बिदाई पत्र
पार्टी से क्यो जुड़ा ?
अन्ना आंदोलन के बाद जब राजनैतिक विकल्प की घोषणा हुई तो कुछ महीनो तक दुविधा रही. जिस राजनीति से हम नफ़रत करते है उसी राजनीति में उतरने का मन नहीं था. अरविन्दजी और योगेन्द्र यादव की दलीलो से प्रभावित होकर राजनीति में उतरने का निर्णय लिया। खासकर वैकल्पिक राजनीति का प्रारूप समझने के बाद.
क्या है वैकल्पिक राजनीति?
जहा तक मैं समझ पाया वैकल्पिक राजनीति में लक्ष्य केवल चुनाव जितना या सरकार बनाना नहीं अपितु राजनीति में रहते हुए नैतिकता की ऐसी मिसाल कायम करना है जो अन्य राजनैतिक दलो पर दबाव बना उन्हें भी साफ सुथरी और जनहित में राजनीति करने को मजबूर कर दे.
कुछ व्यक्तिगत नियम
वैकल्पिक राजनीति का उद्देश चाहे जितना पावन हो, राजनीति का अपना चरित्र है. राजनीति में रहते हुए समर्थक भी बनते है और अंधभक्त भी. अंधभक्तो की फ़ौज अच्छे खासे इंसान को अंधा बना देती है. विरोधियो और आलोचको के अभाव में मनुष्य यह मानने लगता है की जो वो कर रहा है वही सही है, सत्य है और धर्म है. वैकल्पिक राजनीति की सफलता के लिए उसके सिपाहियो को यह सुनिश्चित करना आवश्यक है की उनका व्यक्तिगत पतन न हो, वो अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार रहे, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं उत्पन्न न हो. इन सब के लिए खुद पर कुछ नियम लागू किये।
वैकल्पिक राजनीति का अस्तित्व खतरे में था और इसे बचाने का एक ही रास्ता था दिल्ली में सरकार बना कर वहा सुशासन देना. इन चुनावो को जितने के लिए कुछ समझौते किये गए. लेकिन यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई की तरह थे. विश्वास था की दिल्ली चुनाव जितने के बाद मंथन होगा, पिछले 3 सालो में हुई गलतियो को सुधारा जाएगा और हमारा आंदोलन फिर वैकल्पिक राजनीति की और बढ़ेगा, बिना कोई समझौता किये.
मुश्किल समय
दिल्ली में सरकार बनते ही पिछले 3 वर्षो में हुई गलतियों पर मंथन कर उन्हें सुधारने के बजाय बयानबाजी शुरू हो गई – योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के खिलाफ. पार्टी की सोशल मीडिया टीम के प्रभारी का ईमेल बाहर आया जिससे साफ हुआ की वो खुद आतंरिक ईमेल लिक कर रहे थे. जबकि आज भी हम बिना सबुत इमेल लीक करने का ठीकरा प्रशांत और योगेन्द्र पर फोड़ते रहते है. लगातार चल रही बयानबाजी के बिच राष्ट्रिय कार्यकारिणी की बैठक हुई जिसमे इन दोनों को PAC से बाहर करने का निर्णय लिया गया. उसके बाद प्रयास शुरू हुए इन्हें राष्ट्रिय कार्यकारिणी से बाहर करने के. उसके लिए साम दाम दंड भेद सभी का प्रयोग किया गया. माहौल ऐसा बन गया मानो इस देश की सबसे बड़ी समस्या केवल यह दोनों ही है. इन दोनों न कोई भ्रष्टाचार किया, न ये अपराधी है आरोप लगे की प्रशांत भूषण ने पार्टी को हराने का प्रयास किया, योगेन्द्र यादव ने अरविन्द केजरीवाल को संयोजक पद से हटाने का प्रयास किया. इन आरोपों की जाँच करना किसीने जरुरी नहीं समझा.
पार्टी के जिन नेताओ पर सांप्रदायिक पोस्टर लगाने के आरोप है, जिनके खिलाफ सबूत है अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओ के विरुद्ध साजिश के उनपर कोई कारवाही नहीं. लेकिन योगेन्द्र यादव के खिलाफ केवल यह आरोप की उन्होंने केजरीवाल के खिलाफ साजिश की और उनपर कारवाही. पार्टी के संयोजक बदलते रहते है, कोई संयोजक बनने का प्रयास भी करे तो वह महत्वाकांक्षी हो सकता है, पार्टी विरोधी नहीं. इस तरह तो अगली बार अगर कोई संयोजक के चुनाव में अरविन्द के खिलाफ खड़ा हो जाए तो वह भी पार्टी विरोधी माना जाएगा. पार्टी कार्यकर्ताओ से बनती है. और उन कार्यकर्ताओ को झूटे SMS के द्वारा जिसने बदनाम करने की साजिश रची वो आज भी पार्टी के शीर्ष नेताओ में शामिल है. प्रशांत भूषण की ईमानदारी पर तो बीजेपी और कांग्रेस भी सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर पाते. प्रशांत ने अपने जीवन के 3 दशक ताकतवर लोगो के खिलाफ क़ानूनी लड़ाई लड़ने में बिताये है. उन्होंने कभी पार्टी से न कोई टिकट माँगा न पद. और आज कांग्रेस-बीजेपी छोड़ हवा के रुख को भांप कर पार्टी में शामिल हुए विधायक उनपर हाथ उठाने को दौड़ते है. और हमारे नेता और कार्यकर्ता धृतराष्ट्र बने देखते रहते है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
दिल्ली में सरकार बनाने के बाद पार्टी सही दिशा पकड़ेगी यह उम्मीद टूट गई. इसके बजाय कुछ और सिखने मिला.
1) पार्टी के कार्यकर्ताओ को सवाल पूछने या कुछ बोलने का अधिकार नहीं है. यदि आप संघटित हो गए तो आप के खिलाफ साजिश कर आपको बाहर भी निकाला जा सकता है. और उस समय आप गद्दार कहलाओगे और कोई नए कार्यकर्ताओ की फ़ौज आपका अपमान कर रही होगी.
2) अब पार्टी का मुख्य उद्देश चुनाव लड़ना और सत्ता हासिल करना है. उसके लिए जरुरी हो तो समझौते करने से पार्टी संकोच नहीं करेगी. सवाल पूछने की हिम्मत कर सकने वाले नेताओ को पहले ही दरकिनार किया जा चूका है.
इस समय क्यों
यह सब इस समय अपने आप नहीं हुआ बल्कि यह समय इन सबके लिए चुना गया है. पार्टी को अगले 2 साल कही कोई चुनाव नहीं लड़ना. इस समय चाहे जीतनी चर्चा हो जाए इससे पार्टी को कोई नुकसान नहीं होगा. जनता की याददाश्त कमजोर होती है. कुछ ही महीनो में सबकुछ भूल जाएगी. यही समय है सवाल करने वालो को पार्टी से बाहर निकालने का.
स्वराज संवाद क्यों ?
28 मार्च की राष्ट्रिय परिषद् की बैठक के बाद जब भी मौका मिला मैंने आज पार्टी की स्थिति के लिए सभी निष्काषित नेताओ को खूब कोसा. मुझे किसी व्यक्तिविशेष से कोई मोह नहीं है, और यदि हो तो सबसे अधिक अरविन्द केजरीवाल से है. 3 वर्षो से मेरी यही मांग रही है की कार्यकर्ताओ की सुनी जाए और उसका माध्यम यदि स्वराज संवाद बनता है तो वो सही. फिर सुचनाये मिलने लगी की इस कार्यक्रम में जाना पार्टी विरोधी माना जायेगा तो एक कारण और मिल गया इसका हिस्सा बनने के लिए. जब पिछले 4 वर्षो में पुलिस और प्रशासन की धमकियों से नहीं डरे तो अपनो की धमकी से क्या डरना?
आगे क्या ?
संभव है की इस कार्यक्रम में शामिल होने के बाद मुझे पार्टी से निष्कासित कर दिया जाए. पार्टी के शुरुवाती दिनों में हुए मिशन बुनियाद के दौरान अरविन्द की एक चिठ्ठी पढ़ कर सुनाई जाती थी “यदि किसी पद या टिकट की लालच में पार्टी से जुड़े हो तो आज ही पार्टी छोड़ दो”. अब चुनाव पार्टी को करना है या तो बिना लालच पार्टी के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओ को झेले या उन लोगो को पार्टी में रखे जो पद या टिकट की लालच में बिना सवाल किये नारे लगते रहेंगे.
संभव है एक नै राजनैतिक पार्टी बने, हो सकता है उसमे ये समस्याए न हो. लेकिन मेरा राजनैतिक जीवन आम आदमी पार्टी से शुरू और ख़त्म होता है. सोशल मीडिया पर पार्टी के संरक्षक की भूमिका निभाना आसान है. दुर्भाग्य से अपनी भूमिका वही तक सिमित करने वाले लोग यह कभी नहीं समझ पाएंगे की इस आन्दोलन को खड़ा करने में कई जीवन, कई परिवार स्वाहा हो गए. इस तरह के प्रयोग करने के लिए जीवन छोटा है. और मैं यह प्रयोग दोबारा नहीं करना चाहूँगा.
मित्रो के लिए 2 शब्द
देश का भविष्य युवाओ के, आपके हाथो में है. 40 साल पहले हुए जे पी आन्दोलन की दुर्दशा यह देश देख चूका है. इस बार यदि आप चुक गए तो फिर अगले 4 दशको तक कोई आन्दोलन खड़ा नहीं होगा. इस आन्दोलन को संकुचित नजरो से न देखे. निसंदेह अरविन्द के नित्रुत्व में दिल्ली में सुशासन की मिसाल पेश होगी. लेकिन देश अरविन्द के बाद भी रहेगा. दिल्ली देश की राजधानी जरुर है, देश नहीं. अरविन्द उम्मीद का दिया है, जरुरत है ऐसे सैंकड़ो दिए जलाने की न की उन्हें बुझाने की. इस देश में ऐसे हजारो अरविन्द है जो कभी चेहरा नहीं बने, प्रयास करिए ऐसे हर व्यक्ति को जानने की, बजाय उसे गद्दार कहने के. पार्टी की ऐतिहासिक जित के बाद सवाल उठाने वाला राजनीति की भाषा में मुर्ख होता है. राजनीति में जिसे अपना भविष्य बनाना हो उसके लिए सबसे बेहतर है मौन रहना।